छठ पूजा - सूर्योपासना व लोक आस्था का महापर्व. | Chhath Parva | Chhath Puja |

सूर्य उपासना और लोक आस्था का यह महापर्व, छठ पूजा की प्रसिद्धि का आखिर क्या कारण हैं,आस्थावान भक्तजन छठ पूजा क्यों, कब और कैसे मनाते है।छठ पूजा हिन्दू धर्म के साथ साथ अन्य धर्मो को मानने वालो के बीच अपनी पैठ कैसे बना पाना में समर्थ है और यह छठ पूजा महापर्व आखिर हम सभी को क्या संदेश देना चाहती है। इन सभी विषयों पर हम इस आर्टिकल में चर्चा करेंगे।

छठ पूजा - सूर्योपासना व लोक आस्था का महापर्व. | Chhath Parva | Chhath Puja |
छठ पूजा महापर्व गंगा घाट-बक्सर, बिहार

नमस्कार दोस्तों |

इस प्रकरण में हम छठ पूजा के निम्नलिखित बिंदुओं पर विस्तार से जानने का प्रयास करेंगे |

छठ पूजा बिहारियों व पूर्वांचल के लोगों का एक महापर्व क्यों है।

छठ पूजा महापर्व भोजपुरिया समाज का सबसे बड़े पर्वो में से एक है | वैदिक परम्परा के अनुसार चली आ रही अपनी सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ात हुए यह समाज,जनकल्याण की भावना से कठोर जपतप के माध्यम से विधिवत् इस महापर्व छठ पूजा को संपन्न करते है |

इस पवित्र महापर्व छठ पूजा की गाथा को हमारे वैैदिक ऋषि मुनियों द्वारा ऋग्वेद में लिपिबद्ध की गई है | इसमें सूर्य देव और उनकी जीवनसंगनी देवी उषा और देवी प्रत्यूषा के साथ-साथ प्रकृति, जल, वायु तथा उनकी प्यारी छोटी बहन छठी मैया को विशेष स्थान के रूप में समर्पित है | ऐसी मान्यता है कि वसुंधरा, धरती पर जीवन चक्र के संतुलन को बनाए रखने में प्रकृति की जो मुख्य भूमिका रही है उसे आभार प्रकट हेतु इसकी आराधना व्रत के रूप में की जाती है | 

छठी मैया को समर्पित, छठ पूजा कब और क्यों मनाई जाती है।

छठी मैया का छठ पर्व, छठ या षष्‍ठी पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है |सूर्योपासना व लोक आस्था का महापर्व मुख्य रूप से पूर्वांचल राज्यों में पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ सदियों से मनाया जाता रहा है जिसके अंतर्गत पूर्वांचल के बिहार, झारखण्ड  और पूर्वी  उत्तर प्रदेश जैसे राज्य आते है |

भारतवर्ष से बाहर की अगर बात करे तो अपने भारत से सटे नेपाल के तराई भागो में भी पूरे धूम धाम और हर्षोल्लास के साथ छठ पूजा का यह महापर्व वर्ष में दो बार क्रमशः चैत्र और कार्तिक महीने में मनाया जाता है |

अपने जनकल्याणयुक्त संदेश की वजह से ही आज यह पवित्र महापर्व विश्व के अधिकांश भागो में निवास कर रहे प्रवासी भारतीयों कि वजह से अपनी पहचान बना पाना में समर्थ हुई है |

छठ पूजा मनाने की परंपरा का स्वर्णिम इतिहास।

भोजपुरिया समाज के महापर्व कहे जाने वाले पावन छठ पूजा का प्रारंभ कब हुआ | सूर्य देव की आराधना और पूजन कब से और क्यों आरंभ की गई | इन सभी के बारे में हमारे पौराणिक कथाओं में बहुत ही सरल और सुंदर तरीक़े से वर्णन की गई है |

त्रेतायुग में भगवान श्रीराम, महाभारत से जुड़ी द्वापर युग के दानवीर कर्ण और पांच पांडवों की पत्नी पांचाली उर्फ द्रौपदी ने सूर्य देव की आराधना व उपासना व्रत के रूप में  की थी |

छठी मैया की पूजा, छठ पूजा व्रत से जुड़ी एक पौराणिक क​था राजा प्रियवंद से भी जोड़कर देखा जाता है जिन्होंने सबसे पहले छठी मैया की पूजा व्रत के तहत की थी | आइए, हम जानने का प्रयास करते है कि सूर्य उपासना और छठ पूजा का इतिहास और कथाएं हमें क्या संदेश देती है |

 

राजा प्रियवंद ने अपने पुत्र के प्राण रक्षा हेेतु की थी छठी मैया की पूजन छठ पूजा:

पौराणिक कथा के अनुसार, राजा प्रियवंद नि:संतान होने की वजह से सदैव दुखी रहा करते थे | उन्होंने अपनी दुःख भरी दास्तान महर्षि कश्यप जी से साझा की | महाराज की करुणा भरी व्यथा सुनकर,महर्षि कश्यप ने संतान प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने के लिए राजन को सलाह दी |

 

राजा प्रियवंद ने आज्ञा अनुसार पुत्रेष्टि यज्ञ की आयोजन की | उस दौरान यज्ञ में आहुति के लिए बनाई गई खीर राजा प्रियवंद की महारानी को खाने के लिए दी गई | यज्ञ के खीर सेवन से रानी मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया,लेकिन वह मृत पैदा हुआ था |

 

राजा प्रियवंद मृत पुत्र के पार्थिव शरीर को लेकर श्मशान पहुंचे और पुत्र वियोग में अपना प्राण त्यागने का प्रयास करने लगे | इसी घटनाक्रम में राजन की यह स्थिति देखते हुए देवसेना प्रकट हुई जो सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा देव की मानस पुत्री थी | उन्होंने राजा प्रियवंद से कहा, मैं सृष्टि की मूल भाग के छठवें अंश से मेरा उद्भव हुआ है, इसलिए मुझे षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है | आप मेरी पूजा पूरी निष्ठा से करते हुए इसका जनहित में खूब प्रचार-प्रसार भी करें |

माता षष्ठी के मतानुसार,राजा प्रियवंद ने पुत्र की कामना से माता का व्रत विधि-विधान से संपन्न किया | उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी थी | इसके फलस्वरुप राजा प्रियवद को देवीषष्ठी के कथन अनुसार पुत्र प्राप्त हुआ | इस तरह इस पर्व को मनाने की परंपरा प्रारंभ हुई |

 

श्रीराम और माता सीता ने की थी सूर्य उपासना:

पौराणिक कथा के अनुसार, लंका के राजा रावण का वध कर अयोध्या के वापस आने के उपरांत प्रभु श्रीराम और मैया सीता ने अयोध्या में रामराज्य की स्थापना हेतु कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को इस महाव्रत को उपवास के रूप में रखा था और सूर्य देव की पूजन अर्चना विधिवत् की थी |

 

द्रोपदी ने रखा था मैया छठी व्रत:

पौराणिक कथाओं में छठ व्रत के प्रारंभ को द्रौपदी से भी जोड़कर देखा जाता है | जब पांडव अपनी जुआ में सारी राज पाठ हार गए थे | उस वक्त्त चक्रधारी श्रीकृष्ण के मतानुसार पांचाली ने पांच पांडवों के बेहतर स्वास्थ्य और समृद्ध जीवन के लिए छठी मैया का पावन व्रत रखा था और सूर्यदेव की उपासना की थी | जिसके परिणामस्वरुप पांडवों को उनको खोया राजपाट पुनः प्राप्त हुआ था |

 

कुन्ती पुत्र दानवीर कर्ण की सूर्य पूजा:

महाभारत के अनुसार,दानवीर कर्ण सूर्य के पुत्र थे और अपने आराध्य सूर्यदेव की प्रतिदिन उपासना करते थे | कथानुसार, सबसे पहले कर्ण ने ही सूर्य की उपासना शुरू की थी | वह प्रत्येक दिन विधिवत स्नान के उपरांत नदी में जाकर सूर्यदेव को अर्घ्य दिया करते थे |

 

छठ पूजा की विधि और नियम।

छठ व्रत चार दिनों का बेहद ही कठिन व्रत है जिसे अमूमन महिलाएं अपने परिवार की सुख समृद्धि और शांति की स्थापना हेतु इसका पालन करती है | वर्तमान के परिपेक्ष में कुछ पुरुष वर्ग भी करते हैं | ऐसा भी देखा गया है कि परिवार के युगल दंपत्ति यानी शादी शुदा जोड़े इस पर्व को पूरी आस्था के साथ करते हुए आपको नजर आ जाते हैं |

 

दीपावली के छठे दिन और भैया दूज के तीसरे दिन या व्रत प्रारंभ होता है | व्रत धारी को पर्वैतिन्न भी कहा जाता है |व्रती परिवार दीपपर्व, दीपावली के बाद पुनः अपने पूरे घर की वापस से स्वच्छता और पवित्रता की दृष्टि से साफ सफाई मिलजुलकर करते हैं |

 

उपयोग में आने वाले बिस्तर तक को बहुत अच्छे तरीके से परिवार के सदस्य मिलकर धोया करते हैं | व्रती सदस्यों के लिए घर में बिल्कुल एक एकांत स्थान निर्धारित की जाती है जहां वे इस पवित्र व्रत को संपूर्ण कर पाए | चुकी यह व्रत शीतकाल में होता है तो व्रत धारियों के लिए गर्म बिस्तर जैसे कंबल और चादर अलग से व्यवस्था की जाती हैं | व्रत के दौरान व्रत धारी विधि और नियमानुसार अपने सोने की सैया को फर्श पर ही व्यवस्थित करते हैं |

 

इस महापर्व छठ पूजा की व्रत की विधि से जुड़ी नहाए खाए,खरना,संध्या और उषा अर्घ्य के विधि और नियम को हम विस्तार से जानने का प्रयास करते हैं |

 

नहाए खाए:

यह शब्द ही व्रत के प्रथम दिन को परिभाषित करती है | भोजपुरिया समाज में नहाए का अर्थ स्नान करना और खाए को सादगी पूर्वक विधिवत व्रत में उपयोग होने वाले अन्न को प्रसाद  के रूप में ग्रहण करना है | 

 

यहां व्रत धारी अपने स्थान के आसपास किसी नदी या तालाब का चुनाव करते हैं | वहां विधि के अनुसार जाकर स्नान करने से पहले अपने हाथ और पैर के सारे नाखूनों को अच्छी तरह से काटते हैं और स्नान के पश्चात् उस नदी या तालाब के शुद्ध पवित्र जल को अपने साथ ले कर आते है | व्रत में उपयोग हेतु प्रसाद बनाने में इसी जल का उपयोग किया जाता है |

 

इन दौरान भोजन में लौकी की सब्जी, चना दाल, चावल इत्यादि को उपयोग में लाते हैं | यहां लौकी की सब्जी अनिवार्य होती है | व्रती परिवार अपनी सक्षमता अनुसार अपने पकवान में इन सारी वस्तुओं का उपयोग करते हैं | यहां तली व छनी हुई चीज़े बिल्कुल भी वर्जित है | बिना लहसुन, प्याज के शुद्ध गाय के घी या रिफाइन तेल का उपयोग किया जाता है |

 

व्रत के अनुसार व्रती आहार हेतु, पीतल या मिट्टी के शुद्ध बने बर्तनों को ही उपयोग में लाते है | इस प्रक्रिया में आम की लकड़ी और मिट्टी के चूल्हे शुद्धता की दृष्टि से उपयोग में लाई जाती है | अगर आपके यहां इट्ट उपलब्ध है तो आप इसे  चूल्हे का रूप देकर उपयोग में ला सकते हैं |

 

इस तरह प्रसाद के रूप में बना भोजन व्रतधारी स्वयं अपने हाथों से बनाते हैं | इसका उपयोग पूरे दिन में मात्र एक बार के लिए करते हैं | विधि और नियम अनुसार व्रत धारियों के प्रसाद सेवन करने के बाद ही परिवार के बाकी सदस्य इस प्रसाद का लाभ लेते हैं |

 

खरना:

खरना व्रत के दूसरे दिन को कहते हैं | इसमें व्रत धारी सम्पूर्ण दिन निर्जला व्रत के तहत उपवास का पालन करते हैं |यहां खीर बनाने की प्रथा मुख्यत सम्मिलित है | खीर बनाने के लिए,सूर्यास्त के बाद,यानी संध्या काल में चावल में गन्नेेे का शुद्ध रस या गुड कर उपयोग कर विधिवत इसका निर्माण किया जाता है | यहां नमक और चीनी का उपयोग वर्जित होता है | 

 

आस्था के नाम पर बनाया हुआ प्रसाद, सर्वप्रथम सूर्य देव और छठी मैया को नमन करते हुए एकांत में उसे अलग से निकाल दिया जाता हैं | उसी स्थान में इस प्रसाद को व्रती सर्वप्रथम ग्रहण करते हैं | विधि अनुसार भोजन करने के वक्त परिवार के बाकी सभी सदस्य उस पूजन वाले जगह को बिल्कुल एकांत छोड़कर किसी दूसरे कमरे या उस विशेष कमरे से बाहर चले जाते हैं ताकि व्रत धारी को प्रसाद ग्रहण के दौरान अन्यथा कोई विघ्न न हो |

ऐसी मानयता है कि खाते वक्त किसी की आवाज सुनाई देना छठ माता की विधि के अनुसार अनुचित है | व्रत धारी के भोजन करने के बाद ही घर के बाकी सदस्य और परिचित गण प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं | इस पूरी प्रक्रिया को ही खरना कहा जाता है | सूर्यदेव और छठी मैया के नाम से निकले प्रसाद को गौमाता को अर्पित की जाती है    

चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में परिवार के बाकी सदस्यों और हितैषी गणों को वितरीत की जाती है | इसके पश्चात् आने वाले 36 घंटों के लिए निर्जला का व्रत व्रती रखते है | मध्य रात्रि यानी आधी रात में छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जिसे ठेकुआ कहतेे है उसे अपनेेे हाथों से बनाते हैं |

 

संध्या अर्घ्य:

यह व्रत का तीसरा दिन होता है | यहां परिवार का कोई भी सदस्य अपने आस पास के नदी या तालाब के उस स्थान में उस स्थान कि मिट्टी,जल और गऊ माता के गोबर का उपयोग कर एक घाट और दर्शनार्थी गणों के लिए साफ सुथरे चबूतरे का निर्माण करते हैं | जहां व्रत धारी पूजा के सारा सामग्री को रख पाए और छठ पर्व की इस पावन  अनुष्ठान में सम्मिलित सदस्य बैठ या खड़े हो पाए |

 

इस दिन घर के संपूर्ण सदस्य पूरे आस्था और विश्वास के साथ छठी मैया के कार्य को तन मन से संपन्न करने में लग जाते हैं | यहां पूजा में उपयोग की जाने वाली सारी वस्तुओं को बांस से बनी सूप या टोकरी जिसे भोजपुरिया समाज में दउरा भी कहते हैं इसे उपयोग में ली जाती है |

 

इस ऋतु में उपलब्ध सभी नए फलसब्जी,कन्द-मूल,मसाले व गन्ना,ओल,हल्दी,नींबू(बड़ी वाली),नारियल,पके हुए केले की कांधी आदि व्रती परिवार अपने सामर्थ्य के अनुसार छठ पूजा में अर्पित करने की परंपरा को निभाते हैं | ये सभी वस्तुएं साबूत यानी बिना कटे टूटे ही चढ़ाई जाती हैं | मान्यता और नियम के अनुसार, कम से कम व्रती परिवार पांच विभिन्न प्रकार के फलों को यहां पूजन सामग्री में सम्मिलित करते है |

 

छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे भोजपुरी में कचवनिया भी कहा जाता है उसे भी माता छठी मैया के विशेष प्रसाद के रूप में उपयोग में लाया जाता है |

 

दीप प्रज्वलित हेतु,नए दीपक,नई कपास से निर्मित रुई की बत्तियाँ, गाय की शुद्ध घी इत्यादि अपने साथ ले जाकर घाट पर दीपक जलाते हैं | इसमें सबसे अहम अन्न है को हरी काली, मटर से थोड़ा छोटा दाना होती है जिसे कुसही केराव कहते हैं | इसे वापस टोकरे में लाए जाती हैं |  विधि अनुसार इसे सांध्य-अर्घ्य में सूरजदेव को अर्पित नहीं की जाती | इन्हें बास के बने टोकरे,दउरा में कल सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने हेतु सुरक्षित रख दिया जाता है |

 

घर के पूजन वाले स्थान में छठी मैया की स्तुति करते हुए सर्वप्रथम पूजा अर्चना की जाती है | इस के बाद शाम को एक सूप में पूजन के सभी उचित सामग्री जैसे नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर बांस के बने टोकरे, दउरा में रख दी जाती है | घर के पुरुष वर्ग अमूमन बांस के बने इस टोकरे को अपने हाथो से सर पर उठाकर घाट तक नंगे पांव ले जाने की प्रक्रिया प्रचलित है | इस प्रक्रिया में व्रत धारी और घर की बाकी महिलाएं छठी मैया और सूर्यदेव की ध्यान करते हुए क्षेत्रीय गीत को भोजपुरी में गाते हुए घाट तक जाते हैं | 

 

व्रतधारियों के सुविधा हेतु समाज के बाकी वर्ग के लोग पूरी आस्था के साथ उन मार्गों को साफ-सुथरा,स्वच्छ और अवरोध मुक्त बनाते हैं,ताकि व्रत धारियों को किसी भी तरह की कोई परेशानी ना हो | पूजन वाले स्थान को भी बहुत अच्छे तरीके से टेंट,लाइट और बाजों के साथ सजाने और धजाने की परंपरा निस्वार्थ भावना से कई वर्षों से निरंतर चली आ रही है आगे भी चलती रहेगी ऐसा हम सभी का दृढ़ विश्वास है |

 

व्रत धारी घाट तक पहुंचकर उस दौरा को बने हुए घाट पर रखते हैं और नियमानुसार सूर्यास्त से कुछ घंटे पहले धूप-दीप प्रज्वलित कर चयनित उस नदी या उस तालाब के पवित्र जल में घुटनों भर पानी तक प्रवेश करते हैं | चार पांच बार जल में डुबकी लगाकर पूरे ध्यान की भाव से सूर्य देव और छठी मैया के आराधना में हाथ जोड़कर नमन करते हुए जल में बिताते है |

 

इस प्रक्रिया में सूर्यास्त से कुछ ही क्षण पहले पुनः वापस जल से बाहर आकर प्रसाद के सारे सामग्रियों को व्रत धारी अपने हाथ में उठाकर पांच बार भगवान सूर्यदेव की परिक्रमा करते हुए अर्घ्य देकर इस विधि को संपूर्ण करते हैं | इस अर्घ्य की पूरी प्रक्रिया में परिवार के बाकी सदस्य गण जल या दूध का उपयोग पूरे और छठी मैया के नाम पर अर्पण करते हैं |

 

उषा अर्घ्य :

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की विधि है | सूर्य देव के उदित होने से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके परिजन और आस पड़ोस के परिवार भी घाट पर उपस्थित रहते हैं | संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिए जाने की विधिवत परंपरा है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं |

 

सभी नियम-विधान सांध्य अर्थात् संध्या अर्घ्य की तरह ही होते हैं पर अंतर इतना ही है कि संध्या अर्घ्य में जिस तरह पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके आराधना और अर्घ्य दी जाती है,उषा अर्घ्य में व्रती पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं और सूर्योपासना की सारी विधियों को सम्पन्न करते हैं |

 

पूजा-अर्चना केेे समापन  उपरांत  घाट का पूजन होता है | सुहागिन एक दूसरे के मांग भराई की रश्म को सिंदूर अपने सिर के मांग से लेकर नाक तक लगाकर और लगवाकर एक दूसरे के पतियो की मंगल आयु की कामना करती है | इसके पश्चात वे वहां घाट में उपस्थित लोगों के बीच प्रसाद वितरण करके व्रती घर वापस आ जाते हैं |

 

घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं | व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको क्षेत्रीय भाषा में ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर विधिवत् पूजा करते हैं | पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत अथवा गरम चाय पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं |

 

व्रती,खरना और पारण के मध्य निर्जला उपवासोपरान्त घाट से वापस घर पहुंच कर नमक का उपयोग भोजन में करना प्रारंभ कर देतेे है | ऐसी मान्यता है कि यह पर्व घर की महिलाएं तब तक लगातार करती है जब तक उस परिवार के दूसरी पीढ़ी की महिला तैयार ना हो जाए |

 

दूसरी सबसे अहम बात,अगर घर परिवार में किसी व्यक्ति की अकस्मात मृत्यु हो जाए तो इस पर्व को विधि और नियम के मुताबिक उस वर्ष स्थगित करने की परम्परा है |

 

इस महापर्व में अगर कोई परिवार अपनी स्वेक्षा और भक्ति भाव से इस पर्व की सारी विधियों में सम्मिलित होना चाहे तो वह प्रसाद की सारी वस्तुएं अपनी क्षमता अनुसार व्रती परिवार को समर्पित कर इसे पुण्य व्रत का हिस्सेदार भी बन सकता है |

 

छठ पूजा का सामाजिक संदेश।

इस तरह छठी मैया का यह समर्पण भरा महापर्व लोक और जनकल्याण की दृष्टि से परिपूर्ण होती है | हर पर्व या त्यौहार की महत्वता अपने अपने स्थान पर सर्वोपरि है पर यह पर्व की लोकप्रियता दिन पर दिन इतनी बढ़ती जा रही है कि हिंदू धर्म ही नहीं बल्कि बाकी धर्म को भी मानने वाले हितैषी गण पूरे तन मन और धन से इस महापर्व के दौरान अपने आप को सम्मिलित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं |

 

कहते है,लोगों की आस्था और श्रद्धा वहां बढ़ती है जहां उनकी अपनी मनोकामनाएं, इच्छा और संकल्प पूर्ण होती है और शायद यही वह मूल कारण है जिसे अधिकांश दूसरे धर्मों के लोगों को भी यह महापर्व एक साथ एक लड़ी में आस्था, विश्वास और समर्पण के भाव से आज भी बांधे रखने में सफल रही है | 

 

विशेष नोट :

इस वर्ष वैश्विक महामारी कोरोंना की वजह से पूरे विश्व में अधिकांश व्रती परिवार अपने घर पर ही जमीन पर चार पांच फीट की गहराई कर,उसे शुद्ध पानी से भरकर इस महापर्व को विधिवत परिपूर्ण की जिसकी गवाह आप भी अवश्य बने होंगे |

 

मुझे पूर्ण उम्मीद है,आपको हमारी संस्कृति के इस प्रकरण का यह आर्टिकल अवश्य ही आपके मन को छुआ होगा | दोस्तो, मेरी भविष्य में पूरी कोशिश रहेगी कि इस प्रकरण के तहत ऐसे और कई आर्टिकल आप तक अपने शब्दों के माध्यम से रखू जिससे आपको और अधिक जानकारी का लाभ मिले सके |

 

धन्यवाद् |