माता दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ - रहस्यमई ५२वा शक्तिपीठ (The Glorious Kakatiya Temple,The Anicient Temple of Kakatiya Dynasty,Goddess Danteshwari Temple ,Dantewada Chhattisgarh - jaanomaano)

यह आर्टिकल रहस्यमई माता दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाड़ा-छत्तीसगढ़ जो 52 वा शक्तिपीठ,एक पुरातन और प्राचीनतम मंदिर है इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी आप सभी मैया के भक्तजनों तक साझा करने की पूरी प्रयास करता है। जैसे: 52 वा शक्तिपीठ माता दंतेश्वरी मंदिर कहां पर है, 52 वा शक्ति पीठ का नाम,शक्तिपीठ की कथा,शक्तिपीठ की उत्पत्ति,शक्तिपीठ की स्थापना, शक्ति पीठ की वास्तुकला,शक्तिपीठ की पूजन पद्धति,शक्ति पीठ के रक्षक भैरव तथा शक्ति पीठ के दर्शन के सर्वसाधन इत्यादि।

माता दंतेश्वरी मंदिर,दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़  -  रहस्यमई ५२वा शक्तिपीठ (The Glorious Kakatiya Temple,The Anicient Temple of Kakatiya Dynasty,Goddess Danteshwari Temple ,Dantewada Chhattisgarh - jaanomaano)
बस्तर की आराध्य देवी, मां दंतेश्वरी जी की दिव्य मंदिर

दोस्तो नमस्कार।

हमारी धरोहर शीर्षक के पहली कड़ी में मै आज आप सभी के समक्ष छत्तीसगढ़ राज्य के दंतेवाड़ा जिले में स्थित एक ऐसी पौराणिक,अद्भुत और रहस्यमई मंदिर के बारे में जानकारी साझा करना चाहता हूं जिसकी गौरवान्वित इतिहास करीब 800 वर्ष पुरानी है, जहां यंत्र तंत्र विधि से देवी पूजन पद्धति पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी होती चली आ रही है।साधक आज भी घने जंगलों में माता की अचूक अनुकम्पा प्राप्ति की दृष्टि से तंत्र साधना करते नजर आ जाते है और माता के 52 वा शक्तिपीठ का दर्जा भी प्राप्त है।

नीचे लिखें क्रमशः इस आर्टिकल में आप छत्तीसगढ़ राज्य और इसकी रहस्यमय जिला,दंतेवाड़ा के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है।

माता सती के बाकी 52 शक्तिपीठ कहां कहां स्थित है,आने वाले समय में आप जान सकते है।

मिली जानकारी के अनुसार,सन् 1883 तक यहां नरबलि प्रथा प्रचलित थी। विश्व की पहली एकमात्र ऐसी दिव्य,अलौकिक माता का मंदिर जिनके मुख्य द्वार पर गरुड़ जी का स्तंभ शोभायमान है।घने जंगलों के बीच बल खाती दो नदियो, डंकिनी और शंखिनी के संगम स्थल पर विराजित 52 शक्तिपीठों (कुल 51 शक्तिपीठ है,किन्तु कुछ धर्म आचार्य गण माता की इस पवित्र स्थल को ५२वा शक्तिपीठ के रूप में मान्यता देते है।) में से एक ऐशा अद्भुत, अकल्पनीय मंदिर जिसकी स्थापना में काकतीय वंश के राजाओं का अभूतपूर्व देन है।

पौराणिक कथानुसार, काकतीय वंश के राजा मां भगवती के परम भक्त हुआ करते थे और उन्हें अपनी कुल देवी के रूप में पूजते थे। सन् 1313 ईसवी में मुगलों के आक्रमण के समय महाराजा प्रताप रुद्र देव जी के छोटे भाई अन्नम देव जब वारंगल से बस्तर अपने सैन्य शक्ति के साथ अपनी आराध्य कुल देवी माता दंतेश्वरी का आशीर्वाद लेकर बस्तर रियासत की ओर कूच किए।

Courtesy : Dr. Jainendra Kumar Shandilya - YouTube

इतिहासकार और बड़े बुजुर्गो की अनुसार,इस यात्रा में मैया दंतेश्वरी ने अपने भक्त अन्नम देव को साक्षात् दर्शन दिए थे और परिस्थिति अनुरूप प्रसन्न होकर उन्हें यह वर प्रदान किया कि जहां तक भी वह इस क्षेत्र में जा सकेगा,देवी उसके साथ साथ चलेगी और वह जमीन उसकी साम्राज्य के रूप में होती चली जायेगी परंतु देवी ने राजा के सामने इस पर एक शर्त भी रखी थी कि इस प्रक्रिया के दौरान राजन पीछे मुड़ कर बिल्कुल भी नहीं देखेंगे,अगर वे ऐशा नहीं करते है तो माता उस भूभाग पर स्थापित होकर अदृश्य हों जाएंगी।

राजा अन्नम देव जहां-जहां भी जाते, मां भगवती उनके पीछे-पीछे चलती रहतीं और उतनी जमीन पर राजा की आधिपत्य होती जाती। इस तरह यह क्रम चलता रहा। माता जब राजन के पीछे - पीछे चलती,उनकी पायल कि ध्वनि राजा को आभाष कराती रहती थी कि मैया उनके साथ साथ है।

अन्नम कई दिनों तक यूं ही चलते-चलते वे दंडकारण्य क्षेत्र बस्तर के घने वनों के बीच प्रवाहित शंखिनी - डंकिनी नदी के संगम तट आ पहुंचे। उन नदियों को पार करते समय राजा को देवी की पायल की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। राजन को ऐशा लगा कि कहीं उनकी इष्ट देवी रूक तो नहीं गई। इसी भ्रम के चलते उन्होंने पीछे मुड़कर देख लिया।उन्होंने देखा कि देवी तो नदी पार कर रही थीं।

वरदान के शर्त के मुताबिक माता उसी क्षण उस भूभाग पर स्थापित हो कर अदृष्य हो गई और इस तरह माता के अन्नत भक्त राजा अन्नम देव ने शंखिनी- डंकिनी नदी के समागम के स्थान पर आज से लगभग 700 वर्ष पहले अर्थात् 14वी शताब्दी में माता की भव्य और अलौकिक मैया दंतेश्वरी मंदिर के रूप में स्थापना करवाई ।

वहीं दूसरी ओर एक प्राचीन कथा यह भी सुनी जाती रही है कि सतयुग में जब राजा दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव को अपमान करने कि दृष्टि से सभी देवी देवताओं के समक्ष यज्ञ करवाया तो उन्होंने भगवान शिव को इसमें आमंत्रित जानबूझकर नहीं किया । इस पर भगवान शंकर अति क्रोधित हुए और उन्होंने क्रोध में आकर अपना विक्रान और रुद्र रूप धारण कर तांडव नृत्य आरम्भ किया। 

माता सती राजा दक्ष की पुत्री थीं तो उन्होंने अपने पति के इस अपमान से क्षुब्द होकर अपने पिता के यज्ञ कुंड में कूदकर अपनी आहुति दे दी थी। जब भगवान शंकर को इस बारे में पता चला तो वह सती का पार्थिव शरीर को अपनी गोद में उठाकर विचलित अवस्था में पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा करने लगे।

 

प्रभु शिव के इस क्रोधित रूप से प्रलय की आशंका को देखते हुए श्री हरि भगवान विष्णु ने,सभी देवताओं के परामर्श अनुसार अपने दिव्य सुदर्शन चक्र से माता सती के पार्थिव शरीर को खण्डित कर दिया। इस दौरान जिन-जिन स्थलों पर माता सती के अवशेष गिरे,वहां शक्ति पीठों की स्थापना होती चली हुई। उनमें से दंतेवाड़ा भी एक है। कहा जाता है कि यहां माता के एक दंत गिरे थे और यह मान्यता केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का भी परिभाषित करती है। इसलिए यह स्थल पहले दंतेवला कहा जाता था पर कालांतर में दंतेवाड़ा के नाम से चर्चित हुआ। 

माता के परिसर में नरबलि प्रथा को लेकर अलग अलग तथ्य हमारे सामने उजागर हुई है।कुछ तथ्य यह कहते है की यह प्रथा सन् 1883 तक चली, वहीं दूसरी ओर कुछ इतिहासकारों के मुताबिक इस शक्तिपीठ में परंपरा के मुताबिक जो नरबलि प्रथा प्रचलित थी उसे कालांतर में ब्रिटिश शासन करता लॉर्ड कैंबेल ने अमानवीय कृत्य मानकर जबरन बलपूर्वक इस प्रथा को बंद करवाई।

मेरिया-मोड़िया आदिवासियों के परंपराओं पर हस्तक्षेप करने के एवज में हिडमा मांझी के नेतृत्व में और आंगल- मराठा शासन के विरुद्ध इस मेरिया-मोड़िया विद्रोह का आगाज़ किया गया और यह सन् 1842 से लेकर 1963 ईस्वी तक चली। उन दौरान बस्तर के शासक राजा भूपालदेव हुआ करते थे।जानकारों का कहना है कि उस समय के माता दंतेश्वरी के पुजारी श्याम सुंदर जी ने भी प्रबलता से ब्रिटिशर्स के इस कदम का विरोध किया था।

आठ भैरव भाइयों का आवास स्थान यहां के नदियों के किनारे है,  ऐसी मान्यताा है । तांत्रिकों की भी साधना स्थली के रूप में भी यह स्थल प्रसिद्ध है । कहा जाता है कि यहां आज भी बहुत से तांत्रिक वनों से आच्छादित पहाड़ी गुफाओं में तंत्र विद्या की साधना आज भी कर रहे हैं। यहां आज भी नलयुग से लेकर छिंदक नाग वंशीय काल की दर्जनों मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। मैया दंतेश्वरी को बस्तर राज परिवार की कुल देवी के रूप में पूजा जाता है, परंतु अब यह समूचे बस्तरवासियों की अधिष्ठात्री हैं ।

काले पत्थर से बनी नरसिंह अवतार रूपी,छह भुजाओं वाली माता की प्रतिमा देखते ही बनती है। माता के सिर के ऊपर चांदी कि छत्र से सुसज्जित दाई और बाई भुजाओं में क्रमशःशंख,खड़ग,त्रिशूल,घंटी,पद्म और राक्षस के केश धारण किए मैया का स्वरूप मन को मुग्ध करने योग्य है।

माता का दरबार चार भागों में बटा हुआ है,गर्भ गृह,महामण्डप,मुख्य मंडप और सभा मंडप। गर्भ गृह और महामण्डप का निर्माण एक ही पत्थर के टुकड़े से बनी हुई है।

मंदिर के मुख्य द्वार में गरुड़ स्तंभ स्थित है। इस विशेष स्थंभ की ऐसी मान्यता है की अगर कोई भी भक्त अपने दोनों बांहों को उल्टी दिशा में करने के साथ साथ अपने पीठ को स्थंभ में टिक्का कर दोनों बांहों के हथेलियों से मिला पाने में सक्षम हो जाता है तो वह शक्तिरूपेण माता के आशीर्वाद का भागीदार बन जाता है और उसकी मन की मुराद पूरी हो जाती है।

माता के मंदिर के अंदर प्रवेश, पुरुष वर्ग लूंगी या धोती पहनकर ही कर पाते है। पायजामा पहनकर दर्शन करना वर्जित है।

मैया के दरबार में भगवान ब्रह्मा जी को छोड़कर प्रायः प्रायः हर देवी देवताओं की प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई है।गर्भ गृह के द्वार पर दो द्वारपाल के साथ साथ,काले पत्थर की दो बेहद खूबसूरत पाषाण कला की अद्भुत प्रस्तुति दो सिंह कि मूर्ति तथा दाहिने ओर पश्चिम दिशा की ओर मुख किए प्रभु गणेश जी की विशाल प्रतिमा महा मंडप की शोभा बढ़ाती है।

बाबा वैरभ जी की प्रतिमा मुख्य मंडप पर अन्य देवी देवताओं के साथ विराजित है।

मां भगवती के गर्भ गृह को छोड़कर बाकी के भाग,३२ लकड़ी के स्थंभ के साथ निर्मित सन १९३२-३३ में बस्तर की महारानी प्रफुल्ल देवी के द्वारा की  गई।

माता के लिए एक सुंदर और वृहद तालाब की भी उसी दौरान खुदाई की गई जो आज भी पूरे इस जिले को एक अलग ही रूप देती है।इसी पवित्र तालाब के किनारे माता शीतला का भी मंदिर स्थित है। दीपावली महापर्व पर माता दंतेश्वरी के स्नान के लिए इसी तालाब का जल जलाभिषेक के लिए उपयोग में लाया जाता है।

यहां के पुजारी को जिया बाबा की उपाधि प्रदान की गई है।स्थानीय लोगों की माने तो जिया का अर्थ हलवी भाषा में पुजारी होता है। वहीं दूसरी ओर जिया शब्द के मायने मंदिर के मुख्य पुजारी श्री हरेंद्रनाथ जिया कहते है कि जिया का अर्थ जीवन से है।पिछले 800 वर्षों से इनकी 26 पीढ़ियां लगातार मां भगवती की सेवा, समर्पण भाव से करती आई है।माता के असीम आशीर्वाद का ही फल था कि इनके स्पर्श मात्र से मृत शरीर में जीवन का पुनः प्रसार हो जाया करता था। इसलिए मैया के भक्त व पुजारी जी को जिया बाबा की उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है।

माता का प्रागंण काफी विस्तृत है।इस प्रागंण में माता के पद चिन्न भी मौजूद है।

एक बहुत बड़ी बगिया,हरे भरे सुंदर वृक्षों से लैस जिसे माता की बगिया भी कहा जाता है।

मंदिर के ठीक उत्तर दिशा में आप डंकीनी और शंखनी नदी के समागम को देख सकते हैं।इस नदी को पार करने के लिए अब पूल कि व्यवस्था कर दी गई है।इसे पार कर आप एक सुंदर गौशाला का दर्शन कर सकते है।

गौशाला के रास्ते दोनों ओर घने जंगलों के बीचोबीच आप बाबा भैरवनाथ के मंदिर का दर्शन लाभ भी ले सकते है।इस मंदिर के चारों ओर पांच शिवलिंग के साथ साथ कई देवी देवताओं की भी प्रतिमाएं स्थापित है।

बाबा के इस प्रागंण में दक्षिण दिशा की ओर माता वन देवी की भी छोटी सी मंदिर स्थित है।इसी मंदिर से एक रास्ता घने जंगल में लगभग १ किलोमीटर की दूरी पर बाबा टूंडल भैरव नाथ जी की भी मंदिर पुुरातन चट्टानों से बनी है जिसकी जानकारी अमूमन बहुत कम लोगों को है। यह आज जर्जर अवस्था में पड़ी हुई है।

माता की मुख्य पुजारी श्री हरेंद्रनाथ जिया जिसे जिया बाबा भी स्थानीय भाषा में कहा जाता है,उनके अनुसार माता की पूजन पद्धति आज भी वही है जो आज से ८०० वर्षों पहले हुआ करती थीं।समय बदला,लोग बदले पर संस्कृति, रीति रिवाज आज भी वही है। पूजन यंत्र तंत्र की प्रणाली से माता को अर्पित की जाती है।जिया बाबा की माने तो यंत्र चंदन से देवी मंत्र से अभिभासित करने के बाद देवी के चरणों में समर्पित की जाती है।माता दंतेश्वरी और मां भुवनेश्वरी (मावली मैया) का पूजन आरती और भोग की प्रक्रिया एक साथ और एक समय में शुभारंभ और संपन्न की अविरल प्रथा आज भी चली आ रही है। सन् १८८३ तक यहां नरबलि प्रथा ब्यापित थी।

मैया के मंदिर के ठीक दाहिने ओर माता भुवनेश्वरी जी का भी मंदिर स्थापित की गई है।पहले बस्तर की आराध्य देवी हुआ करती थी।ऐसी मान्यता है और जिया बाबा का भी कहना है कि जब सारे देवतागण माता शक्ति की आह्वान संसार के मंगलकामना हेतु की तब मैया सती की प्रथम रूप माता भुवनेश्वरी का स्वरूप ही था।इसलिए इन्हें बड़ी माता भी पुकारा जाता है।तेलगु भाषा में पेद्दाम्मा और क्षेत्रीय भाषा,हल्वी में मावली माता के नाम से जाना जाता है।

१० वी शताब्दी में लगभग ४ फीट की काले पत्थर से निर्मित,अष्ट भुजाओं वाली माता का अद्वितीय स्वरूप निहारते ही बनता है। इनके गर्भ गृह में नौ ग्रहों की मूर्तियों के साथ साथ भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार,माता लक्ष्मी,प्रभु गणेश जी की दिव्य प्रतिमा स्थापित है।आज भी दशहरा महापर्व पर सर्वप्रथम मावली माता की पूजन मावली प्रघाव के रूप में की जाती है।

माता दंतेश्वरी बस्तर के राजकुल परिवार के ईस्ट देवी के साथ साथ संपूर्ण बस्तर वाशियो कि भी आराध्य देवी है और यहां कोई भी शुभ कार्य और पर्व त्योहार माता के दरबार में द्वीप प्रज्वलित करने के साथ ही संपूर्ण बस्तर क्षेत्र में मनाए जाने की परंपरा ८०० वर्षों से आज भी चली आ रही है।यहां देश विदेशों से मैया के भक्त जन, अपनी मन की मुराद लिए,आस्था और विश्वास के साथ माता के दर्शन की अभिलाषा लिए पूरे साल अपनी मौजूदगी दर्ज कराते है।

चैत्र नवरात्रि,शारदीय नवरात्रि तथा फाल्गुन मेला में हजारों हज़ारों की संख्या में पैदल चलकर अपनी संस्कृति को बटोरते यहां की जनजातीय समूह अपनी आराध्य देवी के दर्शन और पूजन हेतु आते है।करीब करीब २५० से भी ज्यादा बस्तर वाशियो कि  देवी देवताओं की पूजन हेतु फाल्गुन मड़ैय महापर्व में बस्तर के वनवासी भाई बहनों अपने अपने कई हज़ारों वर्षों की शैली और परंपरा के तहत क्षेत्रीय वाद्य यंत्रों ढोल,मृदंग,लोक गीत-नृत्य के द्वारा मैया दंतेश्वरी के दरबार में पूरे बस्तर क्षेत्र की सुख,शान्ति और समृद्धि के लिए माता से याचना,आग्रह समर्पण की भावना से करते है।

बस्तर एक ऐशा क्षेत्र है जहां हर १५ किलोमीटर पर भाषाएं बदलती है,परंपरा और रीति रिवाज बदल जाती है।फाल्गुन के इस महीने में १० दिवसीय आखेट नवरात्रि का आयोजन की जाती है जहां मनोकामनाएं ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते है।

दक्षिण बस्तर,दंतेवाड़ा जिले में अपनी प्राकृतिक सुंदरता से धनधान्य सदियों से चली आ रही परंपरा, रीति रिवाजों,कला,संस्कृति साहित्य को सहेजे मैया की इस दुर्लभ,भव्य,चमत्कारी मंदिर का दर्शन हेतु आप यहां एक बार अवश्य आए।

यह छोटा सा शहर माता दंतेश्वरी के नाम को दंतेवाड़ा धारण किए सड़क,रेल और हवाई मार्ग से सुसज्जित तरीक़े से जुड़ी हुई है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जिले से इसकी दूरी ३३० किलोमीटर है और आप लगजुरियस बसो का उपयोग कर सकते है या फिर प्राइवेट चार चक्का वाहन हायर कर माता के दिव्य दरबार में अपनी मौजूदगी दर्ज करा सकते है।

जगदलपुर जो बस्तर जिले और बस्तर संभाग का मुख्यालय भी है यहां से माता के दरबार की दूरी सड़क मार्ग से लगभग ८४ किलोमीटर है।आप बस या कार से सवा घंटे में प्राकृतिक वादियों का लुफ्त उठाते हुए पहुंच सकते है।

हैदराबाद,विशाखापट्टनम,विजयवाड़ा से भी आप सड़क मार्ग से ओवरनाइट बस यात्रा करके यहां आ सकते है।ओडिशा की राजधानी  भुवनेश्वरत तथा स्टील सिटी राउरकेला से,पश्चिम बंगाल की हावड़ा स्टेशन,आंध्र प्रदेश की हैदराबाद और विशाखापट्टनम रेलवे स्टेशन से आप रेलमार्ग द्वारा जगदलपुर तक आ सकते है और फिर वहां से जैसा मैंने उप्पर संबोधन की है सड़क मार्ग का उपयोग कर आप आसानी से पहुंच सकते हैं।

वर्तमान में अब जगदलपुर में हवाई पट्टी भी प्रारंभ हो चुकी है।आप बड़े महानगरों जैसे रायपुर,हैदराबाद,विशाखापट्टनम से जगदलपुर तक पहुंच सकते है।अब यहां पर्यटन की दृष्टि से इस पावन नगरी को हर तरीक़े से सजाया धजाया जा रहा है।

आशा करता हूं ,आपको मेरे इस प्रकरण से एक अनोखे,अद्भुत, प्रदूषण से कोसो दूर, हरी भरी वादियों, खूबसूरत सदाबहार वनों को चादर के भाई ओढ़े आकाश छूती पहाड़ियां,छोटे बड़े झरने तथा अपनी हज़ारों हज़ारों वर्षों की सनातन सभ्यता,संस्कृति की  स्पष्ट जीवंत उदाहरण देता यह हरफनौला शहर आपको अवश्य पसंद आइएगा और आप सभी को यहां आने के लिए आकर्षित करेगा।

धन्यवाद्।

(मित्रो,बहुत जल्द ही आपके समकक्ष मेरी अगली आर्टिकल हमारी धरोहर प्रकरण में इसी क्षेत्र से संबंधित ऐसी ही अकल्पनीय पौराणिक मंदिरों से होगी जिसका इतिहास अभूतपूर्व रही है )