सलवा जुड़ूम,एक जनजागरण अभियान या फिर कुछ और ! Salwa Judum Movement
इस आर्टिकल में आप वर्ष 2005 में क्षेत्रीय नेतृत्व द्वारा नक्सलवाद और माओवादी विचारधारा के विरोध में छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में चलाया गया सलवा जुड़ूम अभियान के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। यह अभियान कब और क्यों आरम्भ की गई। सलवा जुड़ूम अभियान के जनक कौन थे,अभियान की मंशा क्या थी और इस अभियान के तहत सफलता-असफलता की सामाजिक परिपेक्ष को भी हम जमनी स्तर पर समझने के साथ साथ ये भी जानने का प्रयास करेंगे कि क्या सच में यह सलवा जुड़ूम अभियान जनहित रूपी था या फिर कुछ और !
मित्रो नमस्कार ।
बड़े बुजुर्गों ने बिल्कुल सही बात कही है की अकारण कुछ भी नहीं होता। हर कारण के पीछे कुछ ना कुछ मंशा अवश्य ही होती है और इससे हम सभी भली भांति परिचित है। यह मंशा कुछ तथाकथित व्यक्ति विशेष वर्ग का निजी स्वार्थ भी हो सकता है या फिर जनहित और जनकल्याण की भावना भी ।
आज हम इस प्रकरण में इसी संदर्भ से जुड़े एक ऐसे अभियान के बारे में जानने की कोशिश करेंगे,जहां आज भी यह दावा किया जाता रहा है कि इस अभियान का संबंध मानवता व जनकल्याण के तर्ज पर सिर्फ और सिर्फ अमन, चैन, शांति को वापस से बहाल करने के उद्देश्य से था।
क्या सच में इस अभियान की मजबूत नींव सिर्फ और सिर्फ जनहित और जनकल्याण की भावना से रखी गई थी??? या फिर इसकी मंशा कुछ और भी थी !
क्या हमारा गांव,हमारा देश,हमारा संदेश में वास्तविक रूप से परिवर्तन देखने को मिला ??
छत्तीस किलों व गढ़ो वाले राज्य के बस्तर संभाग में क्या हकीकत तौर पर इस आंदोलन से आम वनवासी परिवारों के जीवन में बदलाव आया ??
आइए हम इसे खंगालने का प्रयास निम्नलिखित स्रोतों के माध्यम से करते है;
- उन दौरान मीडिया में छपे इस अभियान संबंधित प्रकरण
और - क्षेत्र में रह रहे अपने वनवासी परिवारों से सीधी संवाद करके ।
सलवा जुडूम अभियान का अर्थ, क्षेत्रीय भाषा में शांति का कारवां या आप फिर यह कह सकते है शान्ति यात्रा ।
इस अभियान का जनक,छत्तीसगढ़ राज्य के सुकमा जिले के अंतर्गत झीरम घाटी में वर्ष 25 मई 2013 को नक्सलियों द्वारा सुनियोजित तरीके से सलवा जुड़ूम अभियान के विरुद्ध बदले की कार्रवाई से हमले किए गए प्रकरण में अंतिम सांस लिए कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा को माना जाता है।
इस आंदोलन की शुरुआत 4 जून वर्ष 2005 में की गई थी।
इस अभियान का मुख्य उद्देश्य अगर हम इन नेताओं की माने तो उनके मुताबिक नक्सलवाद और माओवादी विचारधारा को हमेशा हमेशा के लिए बस्तर की भूमि से खात्मा करना।
वहीं दूसरी ओर, मीडिया के हवाले से माओवादियों का पक्ष था - की सलवा जुड़ूम का निर्माण भोले भाले आदिवासियों से जमीन लेकर गैरसरकारी संस्थाओं को देने में मदद करने के उद्देश्य से किया गया था।
आइए हम संक्षिप्त में जानने की प्रयास करते है।
क्षेत्रीय नेतृत्व और प्रदेश सरकार की देखरेख में इस अभियान में बस्तर कि सुदूर क्षेत्रों में रह गुजर कर रहे वनवासी व गिरिवासी भाई बहनों की फोर्स तैयार करना जो समाज विरोधी ताकतों के खिलाफ अपनी अस्तित्व के लिए समयानुसार मुकाबला कर सके।
रणनीति के मुताबिक, इस अभियान के तहत अभियान से जुड़े परिवारों को उन गैरसैविधानिक संगठनों के विरूद्ध हथियार मुहैया करवाकर प्रशिक्षण के अनुसार उन्हें स्पेशल पुलिस ऑफिसर,SPO का दर्जा देना।इस अभियान में सम्मिलित ग्रामीणों को यह भी आगाह किया गया कि वे आज के बाद उन्हें अपने क्षेत्र के विशेष ग्रामीण बस्तियों में शरण और राशन का सहयोग नहीं करेंगे जो पहले ये अमूमन परिस्थिति अनुसार किया करते थे।
इस मुहिम के अंतर्गत उन प्रत्येक ग्रामीण आदिवासियों को भत्ता के तौर पर ₹1500 से ₹3000 महीने देने की प्रावधान भी रखा गया जो कहीं ना कहीं प्रेरित करने की मंशा भी थीं जिससे इस अभियान को और अधिक बल मिले।
ऐशा दावा किया जाता है कि शुरुआती दौर में इस अभियान को काफी समर्थन और सहयोग दोनों ओर से मिला जिसके बदौलत प्रशासन को वनवासी परिवारों की ओर से माओवादियों की जंगल में चल रही विरोधी गतिविधियां और उनके ठिकानों की जानकारी सही समय पर मिलने के कारण प्रशासन की सुरक्षा एजेंसियों को इनके खिलाफ एक्शन लेने में काफी हद तक सुविधा मिलने लगी थी ।
उन दौरान मीडिया में छपे प्रकरण की अगर समीक्षा करे तो,चल रहे इस अभियान में कुछ माओवादियों के बौद्धिक समर्थकों ने इसका दुष्प्रचार भी काफी बड़े पैमाने पर किया था और मानव अधिकार के उल्लंघन के तहत इसे खूनी संघर्ष का नाम बताया और कई सारे प्रश्न चिन्ह सरकार की मंशा पर उठाए जाने लगे थे।
मानवाधिकार के कार्यकर्ताओं का यह कहना था की सरकार मासूम गांव वालों को अपना हथियार बनाकर माओवादियों और नक्सलवादियों के खिलाफ भड़का रही है और इनका दुरुपयोग कर रही है।
मीडिया के हवाले से वर्ष 2011 में मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदनी संदूर ने इस मामले को माननीय सुप्रीम कोर्ट में लेकर गई और 5 जुलाई 2011 में साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर इस अभियान को अवैध घोषित कर दिया गया।
वहीं दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता आनंद कश्यप का कहना है की अग्नि,AGNI(Action Group for National Integrity) नाम का एक संगठन जिसका पूरा तामझाम कारपोरेट प्रायोजित है वे कहते हैं कि जनता माओवादियों के साथ नहीं है लेकिन नौकरशाही कॉरपोरेट्स और ठेकेदारों की लूटने करीब चार दशक पहले ही आदिवासियों के भीतर पुलिस और सुरक्षाबलों के प्रति अविश्वास पैदा कर दिया था।
उन्हीं दिनों इस इलाके में माओवादी आए जिन्होंने पुलिसिया दमन बंद करने, शराबबंदी और शिक्षा का नारा देकर इन भोले-भाले आदिवासियों को समर्थन देने का संकल्प लिया क्योंकि हमारी आदिवासी जनता हमेशा से एक स्थिर और सुरक्षित जीवन चाहती है।
इस अभियान के कर्ता धर्ता और कुछ क्षेत्रीय बुद्धिजीवि गण बताते है की इस अभियान को माओवादियों ने बदले की भावना से लिया और इसके बदले मासूम गांव वालों को जनता की अदालत लगाकर मौत के घाट उतार दिया गया।कई गांव को आग के सुपुर्द कर दिया गया। कई परिवार बेघर हो गए।
ऐसी भी कई सारे तथ्य साक्ष्य उपलब्ध है कि इस अभियान के दौरान सुरक्षाबलों को प्रशासन ने गांव के उस सुदूर क्षेत्रों में बने स्कूलों और सरकारी भवनों पर सुरक्षा मुहैया करवाने के तहत गस्त लगाने के दौरान रहने के लिए व्यवस्था दी गई थी।माओवादियों ने बदले की भावना से इन सारे भवनों और स्कूलों को आग के हवाले कर दिया था।
मीडिया और स्थानीय सूत्रों की अगर मानें तो लगभग उन दौरान 644 गांव को खाली करवा कर एक बड़ी आबादी को राहत शिविरों में स्तांतरण करवाया गया था, कई लोग बेघर और सैकड़ों लोग मारे गए थे।इस पूरी प्रकरण में सबसे ज्यादा हमारे नन्हे बच्चे और युवा पीढ़ी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। उनकी शिक्षा और शिक्षण व्यवस्था,जीविका और रोज़गार पर बहुत ज्यादा आघात पहुंचा था। सरकारी तथ्यों की अगर बात करें तो इसकी वजह से वर्ष 2011 में लगभग विद्यालयों में बच्चों का आने और शिक्षा प्राप्त करने का दर गिरकर 50% हो चुका था।
इस आंदोलन का नाम लेते ही आज भी हमारे भोले भाले वनवासी परिवारों के दर्द को उनके आंखों में आंसू के रूप में छलखते हुए आज भी देखा जा सकता है।
परिस्थिति अनुसार जनहित में,नक्सलवाद विचारधारा को हमेशा के लिए जमी दोष करने के उद्देश्य से सरकार और क्षेत्रीय नेतृव के सहयोग से प्रारंभ किया गया यह आंदोलन कुछ तकनीकी कारणों की वजह से अपनी वास्तविक अस्तित्व को भूला किसी और ही दिशा में पथभ्रष्ट हो गया था जिसका खामियाजा एक मोहरे की तरह यहां के हमारे अपने भोले-भाले,बेकसूर वनवासी भाई बहनों को अपनी अस्तित्व,अपने जान माल को गवा कर दोनों ओर से(प्रशासन तथा माओवादी संगठन) भुक्तान करनी पड़ी थी और आज भी यह कही ना कहीं जारी है।
अन्याय,गैर बराबरी
सामाजिक और आर्थिक विषमता
अत्याचार, शोषण, अधिकारों का हनन
भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार कहीं ना कहीं हमारे समाज में इस तरीके की परिस्थितियां पैदा करती आई है।
हमें मानवता, जनकल्याण के तहत आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से एक ऐशा माहौल का उद्भव करने की आवश्कता है जहां ये सभी हमारे अपने, अहिंसा का मार्ग छोड़कर एक स्वस्थ्य,सुरक्षित और भयमुक्त परिवेश में आगे बढ़ पाए और अपने देश के मुख्य धारा से ज्यादा से ज्यादा संख्याबल में अपने आप को जोड़कर सम्मानित नागरिक का दर्जा पुनः प्राप्त कर पाए जैसे की दंतेवाड़ा के पूर्व जिलाधिकारी श्री ओपी चौधरी ने शिक्षा को अहम हथियार बनाकर एजुकेशन सिटी,दंतेवाड़ा के रूप में की थी।
धन्यवाद्।