बारसूर - मंदिरों और तालाबों का शहर | Historical City of Bastar - Barsoor, Dantewada Chhattisgarh | Barsur - An Archeological Treasure |

बारसूर - मंदिरों और तालाबों की सुंदर और विचित्र नगरी दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़, पूरे विश्व में आखिर आस्था और पर्यटन की दृष्टि से क्यों प्रसिद्ध है | इसकी रहस्यमई पौराणिक इतिहास हमें क्या संदेश देती है | बारसूर में कौन कौन से प्राचीनतम ऐतिहासिक मंदिर आज भी स्थित है और कितने समय के गरक में देखरेख के अभाव में समा रहे है या समा गए है | इस आर्टिकल बारसूर - मंदिरों और तालाबों का शहर, में आप सभी तक हम इन विषयों पर साझा करने की पूरी प्रयास करेंगे |

बारसूर - मंदिरों और तालाबों का शहर | Historical City of Bastar - Barsoor, Dantewada Chhattisgarh | Barsur - An Archeological Treasure |
बत्तीसा मंदिर - बारसूर,दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़

प्रिय मित्रों, नमस्कार |

बारसूर शब्द सुनने मात्र से ही हर किसी के मन में पौराणिक काल की कथाओं का परिदृश्य अंतर्मन में उबाल लेना प्रारंभ कर देता है |

बारसूर - मंदिरों और तालाबों का शहर ,राज्य छत्तीसगढ़ के दक्षिण प्रांत में स्थित दंतेवाड़ा जिला का एक ऐशा प्राचीनतम और ऐतिहासिक नगरी है | यहां हर जाति,धर्म,पंथ को मानने वाले लोग अपने पूर्वजों के अमूल्य धरोहरों,संस्कृति,स्थापत्य को देखने,समझने और  जानने की मंशा से हजारों की तादाद में इस पावन धरती की ओर पूरे विश्व से प्रस्थान करते रहते है |

इस प्रसंग में हम निम्नलिखित ऐतिहासिक धरोहरों पर संक्षिप्त ताैर पर इनकी प्राचीनतम इतिहास और वर्तमान की स्थिति को जानने का प्रयास करेंगे |

Courtesy:Dk 808 - YouTube

विश्व प्रसिद्ध एजुकेशन सिटी, जावांगा गीदम से मात्र 25 किलो मीटर की दूरी पर घने जंगलों के बीचोबीच स्थित है यह हर्फनौला शहर बारसूर |

आप नीचे दिए गए लिंक के माध्यम से अविरल छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी प्राचीनतम नगरी दंतेवाड़ा के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं |

इसका इतिहास ही इतना अविरल है कि नक्सलवाद के डर को भी कई कोस पीछे छोड़ बिल्कुल निर्भीक होकर सैलानि इस विशेष नगरी की ओर निरंतर भारी संख्या बल में दर्शन के उद्देश्य से अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहते है |

शहर के बारे में कई सारी पौराणिक मान्यता हमारे इतिहासकारों और इस क्षेत्र से जुड़े बुद्धिजीवी द्वारा द्वारा दी गई है | आइए हम विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के माध्यम से इसे जानने का प्रयास करते हैं |

पौराणिक मान्यता के अनुसार इस धर्मनगरी को भगवान श्रीहरि विष्णु के परम भक्त प्रहलाद की वंश से जोड़कर देखा जाता है |

राजा बली जो भक्त प्रहलाद की पौत्र थे और इनके पिता का नाम राजा विरोचन था | राजा बली की अहंकार को तोड़ने के लिए जब भगवान विष्णु ने वामन रूप का अवतार धारण कर दान में धरती का मांगकर बली को पाताल लोक भेज दिया था,उसी वक्त उसका पुत्र बाणासुर दंडकारण्य के इस क्षेत्र को अपने नाम अनुसार बाणासुरआ अपनी राजधानी बनाई थी |

 

राजा बाणासुर राक्षस कुल से आता था और इसके नाम से ही इस नगरी का नाम बारसूर पड़ा | कहते है, बाण भगवान शिव का उपासक और परम भक्त था | उसने अपने कठोर जप-तप अर्थात् तपोबल से अपने ईस्ट देव भगवान भोले शंकर को प्रसन्न किया था|इसके फलस्वरूप प्रभु ने साक्षात दर्शन दे कर वर के रूप राजा बाणासुर को अक्षय ध्वज प्रदान किया था |

इस वरदान के अनुसार,जब तक यह अमोख़ ध्वज उसके क्षेत्र में लहराता रहेगा तब तक बाण का साम्राज्य सुरक्षित और सामृध्य हर दृष्टि से रहेगा |

भगवान की इस अनुपम भेट की वजह से ही बाणासुर कई वर्षों तक निर्भीक होकर इस क्षेत्र में अपना राज्य को स्थापित करने में सफल हुआ था | उसने अपने घने वनों से आच्छादित राज्य के चारों ओर प्रभु शिव,गणेश और शक्ति की अवतार, मां दुर्गा की कई प्रतिमाएं और मंदिरों का निर्माण करवाया था |

शास्त्रों के अनुसार बाणासुर की सुपुत्री, राजकुमारी उषा का दिल भगवान विष्णु स्वरुप श्री कृष्ण जी के नाती अनिरुद्ध पर मोहित हो गया था | उसने अपनी आसुरी विद्या से निद्रा अवस्था में ही कुमार अनिरुद्ध को अपने राज्य ले आई थी |

इसी प्रकरण में भगवान श्री कृष्ण जी के पद इस नगरी पर पड़े थे |कहते है, उसी वक्त भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अक्षय ध्वज का नस्ट होना राजा बाणासुर के राज्य की पतन की गाथा सुनाता है |भगवान श्री कृष्ण और बाण में घोर युद्ध हुई, जिसमें भगवान श्री कृष्ण जी विजय को प्राप्त हुए |

चुकी बाण भगवान शिव का परम भक्त था और शिव जी की कृपा दृष्टि हमेशा उस पर हुआ करती थी | यही कारण था कि भगवान शिव ने अपने भक्त बाणासुर को श्री कृष्ण जी के अवतार के बारे में संपूर्ण जानकारी दी और भगवान विष्णु स्वरूपाय श्री कृष्ण जी से क्षमा याचना कर संधि कर लेने की सुझाव प्रदान की |

बाणासुर ने अपने आराध्य देव की आज्ञानुशार श्रीकृष्ण जी से क्षमा याचना कर संधि कर ली | अपनी पुत्री का विवाह अनिरुद्ध से याचना के तहत् करवा दी | इस तरह बाणासुर भगवान शिव जी के साथ साथ भगवान श्री हरि का भी भक्त बन गया और भगवान् विष्णु जी की भी कई मंदिरों का निर्माण आराधना के उद्देश्य से निर्मित करवाई |

मंदिरों में आज भी शिव जी की बत्तीसा मंदिर,विशाल गणेश जी की युगल मूर्तियां, मामा भांजा मंदिर उपस्थित है | भगवान विष्णु जी की भव्य मंदिर, वर्तमान में संग्रक्षित मामा भांजा मंदिर के ठीक पीछे उपस्थित तालाब के मध्य विराजित है |

वहीं दूसरी ओर इतिहासकार इस नगरी को लेकर कई और दावे प्रस्तुत किए है |

इतिहास के मद्दे नज़र यहां के बारे में इस विषय के बुद्धिजीवियों ने  अलग-अलग मत और तथ्य प्रस्तुत करते आए है | कुछ यह दावा करते हैं कि यह गंगावंशी शासकों की राजधानी आज से  840 ईस्वीं से पहले  हुआ करती थीं | कुछ बुद्धिजीवियों का मत है कि इसे नागवंशियों द्वारा बनाया गया था | यह 10वीं और 11वीं ईस्वीं में काकतियों शासकों द्वारा विस्थापित किए जाने से पहले अंदाजन तीन सदीयो तक इस भूमि के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था |

आइए अब हम यहां की पौराणिक धरोहर और मंदिरों के बारे में संक्षिप्त विवरण के माध्यम से जानने का प्रयास करते है | इतिहास के अनुसार यहां कुल 147 मंदिर और उतनी ही संख्या में यानी 147 तालाब भी हुआ करते थे |

बत्तीसा मंदिर :

राजा बाणासुर द्वारा अपने आराध्य और इष्ट देव भगवान शिव जी की उपासन हेतु इस मंदिर का निर्माण अपने शासन काल में करवाया था | यहीं पर भगवान शिव द्वारा वरदान में दी गई है अक्षय ध्वज लहराया करता था |

32 खंबे पर अवस्थित लगभग 895 वर्ष पुरानी यह मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्य कला के कारण ही पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाई है | पौराणिक मानयता के मुताबिक इसी 32 खंबो में से किसी एक खम्बो से गुप्त मार्ग खुला करता था जिससे अपने महल से सीधे मंदिर में अपने आराध्य देव तक पहुंचने की व्यवस्था थी | एक ही मंदिर में दो गर्भ गृह होने का गौरव भी इस मंदिर को विशेष स्थान दिलाता है |

बाणासुर ने इस बत्तीसा मंदिर के साथ-साथ इसी क्रम में 16 खंभा, आठ खंभा और चार खंभा मंदिरों का भी निर्माण अपने राज्य के चारों ओर स्थापित करवाई थी | आज कालांतर में बत्तीसा मंदिर को छोड़ देने पर बाकी सभी नष्ट हो गए हैं | मात्र 16 खंबा मंदिर जो मामा भांजा मंदिर के ठीक विपरीत दिशा में 150 मीटर की दूरी पर धराशाई होने के कगार पर मौजूद है |

स्थानीय मान्यता के अनुसार बत्तीसा मंदिर के ठीक पीछे लगभग 30 एकड़ का क्षेत्रफल में बाणासुर का गढ़ माना जाता है | आज भी प्राचीन काल के बड़े-बड़े ईट इस बात को इंगित करते हैं कि इस स्थान पर चारों ओर ऊंची ऊंची दीवारों बनाई गई थी | बाड़े के अंदर भी कई मंदिरों के धारासाई हुए खंड हर मंदिरों के चारों ओर आज भी नजर आ जाते हैं |


महाभारत काल के पांच पांडव के खंडर हो चुके मंदिर के अलावा इसी परिसर में शंकर,पार्वती जी का मंदिर भी है, जहां हर शिवरात्रि को विशाल मेला का आयोजन कियाा जात रहा है | इस परिसर के अंदर प्राचीन काल का कई राज दफन है जिसे आज भी खोजने की आवश्यकता है |

पुरातत्व विभाग के अनुसार सन 1208 में नाग शासन काल के दौरान राजमहिषी गंगमहादेवी ने यह मंदिर निर्मीत करवाई थी |एक शिवालय अपने नाम पर एवं दूसरा शिवालय अपने पतिदेव महाराज सोमेश्वर देव के नाम पर नामकरण किया था अर्थात 11वीं और 12वींं शताब्दी केेेेे मध्य की गाथा हमेंंंंं सुनाने का निरंतर प्रयास करती रहती है |

यह प्राचीनतम बत्तीसा मंदिर न ही सिर्फ अपने 32 खंभों की वजह से मशहूर है, बल्कि युगल गर्भगृह वाले इस विचित्र देवालय में भगवान शिव की अद्भुत शिवलिंग जो एक पानी चक्की की तरह ही है जो इसे अपने आप में विशेष बनाती हैं | पानी चक्कियों कि तरह सभी दिशाओं की ओर इसे बेहद आसानी से घुमाई जा सकती हैं | इसका उचित प्रयोग विभिन्न पौराणिक मान्यताओं वाले अनुष्ठानों में की जाती रही होगी ऐसी हम सभी अनुमान लगा सकते हैं | छत्तीसगढ़ के पूरे बस्तर संभाग का इकलौता शिवालय जिसका गर्भ गृह दो है | यह शिवलिंग का निर्माण त्रिरथ शैली में की गई है, जिसे सचमुच देखते ही बनता है |

मंदिर के प्रांगण में दोनों गर्भ गृह से बाहर उत्तर दिशा की ओर मुंह किए हलकी सी मुढ़ी हुई अवस्था में नंदी बैैल की प्रतिमा है | यह काले ग्रेनाइट से निर्मित है | क्षेत्रीय लोगों की माने तो यह नंदी बैल की उत्तर दिशा की ओर अपने स्वामी शिव जी के लिंग को परिभाषित करते हुए पहाड़ों में किसी छुपे हुए ख़ज़ाने की ओर संकेत करता है जो आज भी रहस्य बना हुआ है |

आज भी यह मान्यता है कि नंदी महाराज के कान में गुप्त तरीके से आप अपनी मनोकामनाएं को रख सकते हैं | अगर आप सच्चे मन से समर्पण की भावना से याचना करते हैं तो आपकी मनोरथ नंदी बाबा अवश्य ही पूर्ण करते है |

उन दिनों के तात्कालिक शासकों ने मन्दिर के खर्च व रखरखाव के लिये केरुमर्क गांव दान के रूप में प्रदान किया था, ताकि मंदिर की व्यवस्था सुचारू ढंग से चलती रहे |

 

बत्तीसा मंदिर जो ध्वस्त अवस्था में था उसे राज्य पुरातत्व विभाग ने रिसेटिंग प्रक्रिया के तहत 10 वर्ष पहले ही इसे नया जीवन दिया है | बत्तीसा मंदिर प्रांगण में अब हर साल मकर संक्रांति पर बारसूर महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है |

विशालकाय,युगल गणेशजी की प्रतिमाएं:

यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी बालू पत्थर से निर्मित युगल प्रतिमाएं है | इन दोनों मूर्ति की खास बात यह है कि ये एक ही चट्टान पर बिना किसी जोड़ के बने हुए है |

दक्षिण दिशा की ओर मुख किए होने कि वजह से इसे दक्षिणमुखी गणेश जी के नाम से भी मान्यता प्राप्त है | बड़े गणेश जी की प्रतिमा की उंचाई लगभग सात से आठ फीट तथा चौड़ाई 17 फीट है और वहीं दूसरी ओर छोटे की ऊंचाई 5 फीट है |

इस मूर्ति कि निर्माण को भी राजा बाणासुर से लेकर पौराणिक कथाओं में वर्णित किया गया है | कहा जाता है कि बाणासुर की पुत्री उषा भगवान गणेश जी की परम भक्त थी | वह नित्य दिन अपनी प्रिया सखी और मंत्री कुभांड की पुत्री चित्रलेखा के साथ भगवान गणेश जी की पूजा अर्चना के लिए अपने महल से काफी दूर जाया करती थीं |

बाणासुर अपनी पुत्री की अटूट श्रद्धा को देखते हुए राजा ने गणेश जी के प्रतिमाओं का निर्माण आज से प्रायः 895 वर्ष पहले करवाया | कहते है बड़े गणपति की प्रतिमा अपनी बिटिया रानी और राजकुमारी उषा के लिए और छोटी गणेश जी की प्रतिमा अपने मंत्री के बेटी चित्रलेखा के लिए निर्मित करवाई |

ऐसी मान्यता है कि भगवान गणपति अपने दोनों भक्तो उषा और चित्रलेखा के अटूट भक्तिभाव से बहुत प्रसन्न हुए थे | यही कारण है कि इस स्थान पर सच्चे मन से मांगी गई मनोकामनाएं फलित होती है |

इस परिसर में अभी भी मंदिरों के अवशेष बिखरे हुए नजर आ जाते है | पुरातत्व विभाग की अगर हम माने यहां उन दौरान इस विशालकाय गणेश जी की प्रतिमा के चारो ओर छह मंदिर हुआ करती थी जो बारसूर नगरी के स्वर्णिम इतिहास की गाथा सुनाने का प्रयास करती है |

मामा भांजा मंदिर:

इस मंदिर के नाम से ही यह प्रतीत होता है कि मंदिर कहीं ना कहीं मामा और भांजे के संबंध को स्थापित करता है |

यह मंदिर काफी सुंदर कलात्मक शैल चित्र से परिपूर्ण, बलुई पत्थरों से निर्मित 50 फीट ऊंची दो मंजिला देवालय है | अगर आप ध्यान से इस मंदिर की ऊपरी मंजिल की सतह को देखेंगे तो आपको शिल्पकार मामा भांजे की मूर्तियां अगल-बगल नजर आ जाएंगी |

वर्तमान में बारसूर के अद्भुत गीदम जंगलों में स्थित बचे हुए मंदिरों के बीच यह मंदिर थोड़ी अच्छी हालत में दिखती हैं | इसका श्रेय हमारे पुरातत्व विभाग को जाता है |

इस मंदिर के निर्माण में कई सारी लोक कथाएं सुनने को आज भी मिलती है |

पौराणिक मान्यता अनुसार इस क्षेत्र में राज्य करने वाले शासक परम शिव भक्त हुआ करते थे | कहते हैं अपने इष्ट देव भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु तथा जनकल्याण की भावना और अपने कुल की यश वृद्धि के लिए यहां के तत्कालीन राजा ने एक ही दिन में भगवान शिव की भव्य मंदिर निर्माण करवाने का दृढ़ संकल्प लिया | अपनी इस इच्छा पूर्ति के लिए उसने अपने राज्य के प्रसिद्ध शिल्प कारों को आमंत्रित किया और अपनी इस मंशा को जाहिर कर इसे निर्मित करने के लिए आदेश दिया |

स्थानीय लोगों और इतिहासकारों का कहना है कि दोनों शिल्पकार वास्तव में सगे मामा और भांजे थे | वे दोनों अपने राजा के आज्ञा अनुसार एक ही दिन में इस भव्य और अलौकिक शिव जी की मंदिर की निर्माण उस राज्य के ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से बड़े-बड़े चट्टानों को काटकर अपने अद्भुत शिल्प रूपी कला और ज्ञान से नक्काशी कर की थी |

इस अलौकिक मंदिर के निर्माण के पश्चात राजन ने इस मंदिर के परिसर में ही भगवान शिव जी की पवित्र शिवलिंग और उनके पुत्र भगवान गणेश जी की प्रतिमा का भी निर्माण करवाया जो आज क्षत-विक्षत खंडहरों के अवस्था में दिख पड़ता है |

ऐशा कहा जाता है कि वे दोनों देव शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा के वंशज थे जो अपने दिव्य शक्ति के उपयोग से इसे संपूर्ण किया था |

राजा ने प्रसन्न होकर अपने भरी दरबार में दोनों शिल्पकारों को आमंत्रित कर राजकीय प्रथा अनुसार सम्मानित किया और साथ ही उनके सम्मान में यह पूरे राज्य में घोषणा करवाई कि आज के उपरांत इस मंदिर का नाम इन दोनों प्रतिष्ठित शिल्पकारों के नाम पर ही युगों युगों तक जाना जाएगा | इस तरह इस मंदिर का नाम मामा भांजा मंदिर पड़ा |

वहीं दूसरी ओर राजा बाणासुर को लेकर भी कथाएं प्रचलित है |कहा जाता है कि साधना के तहत शोरगुल से दूर राजन ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था |

चन्द्रादित्य मंदिर :

इस मंदिर की भी खासियत बिल्कुल अभिन्न है | बारसूर नगरी का विशाल सदियों पुराना झील जिसे विशाल बूढ़ा सागर के नाम से भी जाना जाता है । इसी के किनारे स्थित है यह मंदिर |

मंदिर के दीवारों में कलात्मक और रति क्रिया को प्रदर्शित और चित्रित करती मूर्तियां इसे बस्तर का खजुराहो की भी उपाधि प्रदान करती है | यह मंदिर भी भगवान शिव को समर्पित है | भगवान शिव की अकल्पनीय लिंक यहां स्थापित है |

पौराणिक मान्यता अनुसार ऐसा दावा किया जाता है कि राजा बाणासुर हर बसंत काल में इस मंदिर के परिसर में मदनोत्सव का विशाल आयोजन किया करता था |

वहीं दूसरी ओर पुरातत्व विभाग की माने तो छिन्दक नागवंशी और धारा वर्ष के सेनापति चंद्रादित्य को इस मंदिर बनवाने का श्रेय जाता है | इस मंदिर का संरक्षण अब इस विभाग के द्वारा किया जा रहा है|यहां की अविरल मूर्तियों को संग्रहालय बनाकर यहां संरक्षित किया हुआ है |

विष्णु और भगवान शिव की जलमग्न मंदिर :

बारसूर में गनमन व सिंहराज नामक वृहद तालाब के बीच स्थित इस मंदिर को देखा जा सकता था | विष्णु मंदिर सिंहराज तालाब के किनारे स्थापित हुआ करता था और शिव मंदिर गनमन तालाब के मध्य में | हां शिव मंदिर कुछ ठीक अवस्था में है किंतु स्थानीय लोगों की माने तो विष्णु मंदिर पूरी तरह जलमग्न हो गया है |

इन दोनों मंदिरों तक जाने का कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है |फिर भी आस्था के उपासक इस मंदिर का दर्शन करने के लिए अपने मुताबिक पहुंच ही जाते हैं | स्थानीय ग्रामवासी इसे गनमन तराई  के नाम से भी पुकारते है | उपेक्षा के शिकार यह दोनों मंदिर हम सबों की देखरेख की कामना लिए टकटकी निगाहों से आज भी उम्मीदें लगाए बैठा है |

पेदम्मा मंदिर :

शक्ति की प्रतीक मां दुर्गा को समर्पित यह मंदिर राजा बाणासुर द्वारा निर्मित की गई थी|ऐसी मान्यता है की युद्ध से पहले बाणासुर अपने शत्रु के विरुद्ध शक्ति और विजय प्राप्ति के लिए माता का शक्तिपूजन किया करता था |

पुरातत्व विभाग की देखरेख के अभाव में और काल के मुंह में समाता यह अद्भुत मंदिर एक समय बाकी भव्य मंदिरों के कतार में अग्रणी हुआ करता था|मंदिरों के स्तंभ और कलात्मक दीवारें इसकी पुष्टि करता है |

घनी बांसबानो से घिरा यह मंदिर, विशाल गणेश जी की प्रतिमा के ठीक 300 मीटर सामने ही स्थित है | ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर परिसर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित हुआ करता है |ग्रामीण वासियों के देखरेख और अथक प्रयास से  आज भी यह प्राचीनतम मंदिर कुछ हद तक अपने आप को बचा पाने में सक्षम दिखती है |

सात धार जलप्रपात:

सात धार का संबंध  छत्तीसगढ़ राज्य की जीवन संगिनी कही जाने वाली इंद्रावती नदी से जुड़ी हुई है | इसके तट पर बसा यह दुर्लभ शहर बारसूर, से लगभग यह मन को आत्म विभोर करने वाला जलधारा 7 किलोमीटर की दूरी में स्थित है |

Coutsey:Dr. Jainendra Kumar Shandilya - YouTube

बारसूर के ऊंची ऊंची पहाड़ियों और घने जंगलों के बीचो बीच प्रवाहित होती इंद्रावती नदी का चट्टानों से टकराकर सात खूबसूरत और मनमोहक जलधाराओं में बटना ही सात धार कहलाती है |सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान इसकी छटा देखते ही बनती है |

यहां नक्सलवादी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से सीआरपीएफ की 195 बटालियन की स्थापना की गई है | सीआरपीएफ के जवान आने वाले पर्यटकों को बड़े ही शालीनता और सहयोग की दृष्टि से मार्गदर्शन किया करते हुए नजर आ जाते हैं |

बारसूर के दो छोरो तक पहुंचने हेतु इस नदी के ठीक ऊपर एक बृहद पुल का निर्माण प्रादेशिक सरकार के द्वारा की गई है | इस पुल के ऊपर से अक्सर दर्शनार्थ पर्यटन गण इस रमणीय सातधार दृश्य का अनुपम लाभ उठाते हैं |

अखनतराई तालाब :

बारसूर नगरी से कुछ दूर जंगल झाड़ियों के बीच प्राचीन काल में खुदी इस तालाब का महत्व बहुत ज्यादा है | यहां आप खूबसूरत पक्षियों के साथ-साथ उभयचरों जीवो को देखने का लुफ्त उठा सकते हैं | बीहड़ जंगल होने के कारण यहां जंगली जीव जंतुओं का बसेरा है |

आज भी जंगली सूअरों का आतंक यहां देखा जा सकता है |स्थानीय वासियों की अगर मानें ने तो इस तालाब के इर्द-गिर्द नागों का डेरा भी है | सुरक्षा की दृष्टि से यहां आना-जाना लगभग नहीं के बराबर है पर प्रकृति प्रेमी अपने सुरक्षा को मद्दे नजर रखते हुए आज भी इसका दर्शन लाभ ले पाते हैं |

मित्रों यह अनुपम शहर दक्षिण बस्तर दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से मात्र 31 किलोमीटर की दूरी तथा छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर से लगभग 395 किलोमीटर की दूरी पर गीदम के घने जंगलों के बीच स्थित है |

आप अपनी सुविधा अनुसार आसानी से यहां अपने प्रिय जनों के साथ पहुंच कर इस मनमोहक,पावन और अकल्पनीय नगरी का उचित लाभ उठा सकते हैं |

पहुंचने के आयाम:

 

एयर माध्यम

राजधानी रायपुर और आंध्प्रदेश की विशाखापट्टनम इसके दो करीबी मुख्य हवाई अड्डे हैं | ये दोनों, जिले मुख्यालय दंतेवाड़ा से सड़क मार्ग से दुरी करीबन 400 किलोमीटर हैं | जगदलपुर निकटतम मिनी हवाई अड्डा है जिसमें रायपुर और विशाखापट्टनम के साथ सीधे जुड़ाव है |

ट्रेन द्वारा

विशाखापट्टनम, छत्तीसगढ़ राज्य के जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा से ट्रेन के द्वारा भी जुड़ी हुई है | विशाखापट्टनम और दंतेवाड़ा के बीच दो दैनिक ट्रेनें की सीधे कनेक्टिविटी भी सुबिधा  हैं  |

सड़क मार्ग 

रायपुर और दंतेवाड़ा जिले के बीच नियमित बस सेवाएं से लैश हैं | नियमित बस सेवाओं के माध्यम से हैदराबाद और विशाखापट्टनम से भी दंतेवाड़ा जुड़ा हुआ है |

इन तीनों माध्यम से आप गीदम तक पहुंच कर, वहां से पुनः लगभग 25 किलो मीटर की दूरी सड़क मार्ग से पश्चिम की ओर 3-4 किलो मीटर दूरी तय करने के पश्चात दाहिने टर्न लेकर आप इस पवित्र नगरी बारसूर - मंदिरों और तालाबों का शहर तक आसानी से पहुंच सकते हैं | वैसे इस टर्न पर बड़ी एक साइन बोर्ड जिला प्रशासन द्वारा टूरिज्म को बढ़ावा देने हेतु लगाई गई है |

यहां और भी कई पौराणिक और अलौकिक मंदिर आज भी से क्षेत्र में निहित हैं | मुगलों के आक्रमण काल में मुगल शासकों द्वारा इस क्षेत्र के कई मंदिरों को ध्वस्त करने के पश्चात इनमें विराजित और सुशोभित अमूल्य प्रतिमाओं को भी खंडित करने का दुस्साहस किया था पर प्रभु शिवजी अनुकंपा के तहत आज भी कुछ विशेष मंदिर अपने अस्तित्व को बचाए रखी है | मैं अपने आने वाले समय में इसका भी जिक्र आप तक अवश्य ही करूंगा |

विशेष नोट :

इस आलेख में साझा की गई जानकारियां स्थानीय लोगों तथा प्रिंट मीडिया सूत्रों जैसे दैनिक भास्कर न्यूज पत्रिका से प्राप्त कुछ विशेष जानकारी के अनुसार लिपि बद्घ की गई है |

यहां किसी संस्था, धर्म, वर्ग या जाति विशेष को आहत करने के उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं है वरन इसकी मनसा सिर्फ और सिर्फ आप सभी को जानकारी और जागरूक देने व करने मात्र है |

इस संदेश के साथ-साथ मैं आप सभी से विनम्र आग्रह भी करता हूं कि आज हमें अपने आस-पास मौजूद इस तरह की बहुमूल्य धरोहरों को जागरूकता के तहत बचाने की अति आवश्यकता है |इसलिए आप अपनी उचित सुझाव कमेंट बॉक्स पर अवश्य डालें और एक जिम्मेदार नागरिक होने का फर्ज अवश्य ही अदा करें |

धन्यवाद् |